ढोर चराना बेफिक्री वाला सुकून भरा जीवन

By pradeshtak.in

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हरदा:- ढोर चराना बेफिक्री वाला सुकून भरा जीवन वो दिन भी क्या दिन थे 90 के दसक में रविवार या अन्य स्कूल की छुट्टी में हम खेत खलिहान की ओर हाथ में लाठी, कंधे पर छाता टाँगे 30-40 मवेशियों को खेत तक ले जाना । चलते- चलते, बीच-बीच में यदि कोई गाय, बछड़ा, बछिया, बेल, भैंस आसपास किसी के किसी खेत में घुस जाए तो उसे वापस निकालना और यदि बारिश का मौसम हो तो फिर कीचड़ मे खपते खपते खेत में घुसकर निकाल करके वापस लाना, सोचो, कितना दुष्कर कार्य होगा ?

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वह मंजर भी किसी “फ्री स्टाइल कुश्ती” से कम नहीं था । ऐसे ही ढोर घेरते घेरते अपने खेत में पहुंचना । घास वाले जंगल में बागड़ चारों तरफ से कर दी जाती थी । ताकि कोई ढोर/मवेशी घास चरते चरते खेत में घुसकर फसल को नुकसान न पहुँचा सके । उसे कौन्डा कहते थे । कौन्डे में जाकर वे सब चारा चरने में लग जाते थे । अपन भी थोडे से निश्चित हो जाते थे । उसके बाद विशेष मेहनत नहीं करनी पडती थी ।

मवेशियों को भी आदत हो जाती थी, एक निश्चित दायरे में चरते रहने की । किंतु कुछ मवेशिया बदमाश होती थीं, जैसे अपने यहाँ भी कुछ खुराफाती या विघ्न संतोषी होते ही हैं, वैसे ही निगाह चुराकर, बागड़ तोड़कर धीरे से खेत में लगी फसल चौपट करने को धीरे से घुस जाती थी । उनके गले में बडे घुंघरू, घंटी, ढोनी या टापुर बाँध देते थे । जितना बडा बदमाश उतना बडा बाजा बांधते थे ताकि वह कहाँ है पता लगता रहे । अच्छा हां, मवेशियों को हाँकने की एक अलग भाषा होती है । उसे बहुत से लोग जानते ही होंगे किंतु जो नहीं जानते उन्हें समझने के लिए वहीं जाना होगा ।

ऐसे लिखना संभव नहीं होगा । मवेशिया भी उसी भाषा को ही समझती थीं । उनकी ही भाषा में जोर जोर से चिल्लाते हुए ऊबड खाबड़ जगह से भागते हुए जाकर उन्हें वापस लाना । वापस आकर फिर कहीं साफ जगह देखकर पसीना पोछते हुए कहीं कहीं चुभे कांटे, कपडे पर चिपके छोटे छोटे गोखरू और सुक्ले निकालना । उसका भी एक अलग आनंद था ।
वारिश के मौसम में वह काली घटाओं के छा जाने से दिन में रात सा मंजर, बादलों की कानफोडू गर्जना, बिजलियों की भीषण चकाचौंध कर देने वाली तडतडाहट, मौसम को बड़ा ही मनमोहक बना देती थी । फिर भीगते हुए घर की ओर धीरे-धीरे धीरे वापस लौटना, बहुत अच्छा लगता था ।

घर आते थे तो दूर से ही आकाशवाणी इन्दौर से रेडियो पर प्रसारित होने वाले नंदा जी-भेरा जी के कार्यक्रम की वह घुंघरूओ की खनखनाती धुन बहुत ही दिल को लुभाती थीयदि गर्मी का मौसम हो तो वह चिलचिलाती हुई धूप में पसीना पोछते हुए किसी पेड़ की झीनी झीनी छाया में बैठकर पूरा दिन बिताना । वहीं सर्दियों के दिनों में यदि मांवठा गिर जाता हो तो दिन भर ठिठुरते हुए दिन बिताने की मस्ती का स्वाद अद्भुत होता था ।

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मौसम के अनुसार ककडी, भुट्टे, काचरी, फूट, होला, उम्बी खाने को मिल जाती थी, जंगल से ही सब्जी के लिए चिरोट्या के पत्ते, बुधवारा के पत्ते, ककोडे, करेले आदि भी सहज ही तोडकर ले आते थे । उस समय गाँव में ये सब कुछ बिकता भी नहीं था ।अब समय बदल गया । इस तरह के जीवन को देखने का अवसर शायद ही मिले क्योंकि गौवंश कम हो गया है । दो तीन गाय भैंस रहती हैं, उन्हें भी खूँटे पर बाँध कर ही रखते हैं । घर से खेत तक पक्की सड़कें हैं, आने जाने में कीचड़ भी बाधक नहीं होता । सब कुछ सुविधा सम्पन्न हो गया है ।

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